2024-04-27 23:06:27
भारतीय संविधान का राजनीतिक सिद्धांत - शोधार्थी

रघुवीर सिंह

किसी भी संविधान के राजनीतिक सिद्धांत पर चर्चा करने में दो प्रमुख समस्याओं का सामना करना पड़ता है। प्रथम, एक संविधान आमतौर पर किसी एक दार्शनिक स्कूल के  विचारों की एक स्पष्ट और सुसंगत प्रणाली का प्रतीक नहीं होता वरन्  वह कई विचारकों के राजनीतिक दर्शन से प्राप्त एक विशेष वैचारिक-विमर्श का परिणाम होता है। साथ ही यह निर्माण के समय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का भी प्रतिबिंब है। किसी विकसित संविधान के सन्दर्भ में यह एक राजनीतिक समुदाय के अस्तित्व के दौरान चलने वाली ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की परिणति है ।  द्वितीय, अपने औपचारिक स्वरूप के अलावा संविधान का एक पृथक् अर्थ होता है जिसे लोअरस्टेन ने ‘सत्तामूलक-अर्थ’ कहा।

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महत्वपूर्ण यह नहीं कि संविधान का स्वरूप क्या है, वरन्  यह है कि वास्तविक सामाजिक-आर्थिक शक्तियों के साथ इसका संबंध कैसा है; वास्तविक शक्ति-प्रक्रियाओं का संवैधानिक मूल्यों से तादात्म्य है या नहीं। यह अंतर केवल सिद्धांत और व्यवहार का अंतर नहीं, यह राजनीतिक वास्तविकता की गतिशीलता और संवैधानिक तथा कानूनी मानदंडों के साथ इसके सामंजस्य में बहुत गहराई तक जाता है। उदाहरण के लिए राजनीतिक जीवन के मूल-सिद्धांतों पर आम सहमति का अभाव, शिक्षा का निम्न स्तर और राजनीतिक चेतना की कमी  लोकतांत्रिक संविधान के संचालन में बाधक हो सकते हैं भले ही वे संविधान की कानूनी वैधता हेतु चुनौती न हों ।

प्रस्तुत लेख में हमारा ध्यान संविधान के मुख्य सिद्धांतों और उनके सत्ता-मीमांसीय महत्व पर केंद्रित है।

  • मूल लेख पॉलिटिकल थ्योरी ऑफ़ दि इंडियन  कांस्टीच्युशन: फ्रॉम कांस्टीच्युशनल गवर्नमेंट टू पॉपुलिस्ट डेमोक्रेसी  शीर्षक से पर्स्पेक्टिव आन  फिलोसोफी, मेटाफिजिक्स एंड पोलिटिकल थ्योरी नामक पुस्तक में प्रोफेसर रघुवीर सिंह  द्वारा लिखित है । प्रोफेसर  सिंह, गोरखपुर विश्वविद्यालय गोरखपुर में राजनीति विज्ञान विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष रहे । वे राजनीति विज्ञान वाङ्गमय में मौलिक सिद्धांतकार के रूप में ख्याति लब्ध रहे ।
  • पुनर्लेखन : धर्मेन्द्र प्रताप श्रीवास्तव, सीएसएसपी, कानपुर में असिस्टेंट डायरेक्टर (अकेडमिक) हैं ।

 

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