नाथन विडर : जब समाज विज्ञान व मानविकी में फूको के विचारों का महत्व घट रहा है, वहीं यह पुनर्विचार आवश्यक है कि क्या उसकी ‘शक्ति की अवधारणा’ को ठीक से समझा भी गया? इस लेख में ‘शक्ति’ और ‘प्रतिरोध’ के सम्बन्ध में फूको के विचारों पर चर्चा होगी. फूको के अनुसार शक्ति शासितों पर एक पहचान ‘थोपती’ है तथा प्रतिरोध (जो स्वयं भी शक्ति का एक स्वरूप है) उस ‘थोपे पहचान’ को निष्प्रभावी करता है. ‘पहचान’ के इर्द-गिर्द घूमती शक्ति व प्रतिरोध की अवधारणा को फूको के व्याख्याकारों ने मान्यता प्रदान की है, पर उसकी ‘शक्ति की अवधारणा’ के विश्लेषण में उनसे चूक हो गई और इसीलिए उसके शक्ति-सम्बन्धों की समझ भी प्रभावित हो गई. परिणामस्वरूप, वे फूको के विचारों को उन सिद्धान्तों एवम् उपागमों से सम्बन्ध करते हैं जिन्हें स्वयं फूको अस्वीकृत करता है.
फूको के कथनों से इस विचार को बल मिलता है कि शक्ति व प्रतिरोध ऐसी परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां हैं जो क्रमश: व्यक्ति पर पहचान थोपती हैं या उसे निष्प्रभावी करती हैं. अपनी पुस्तक ‘द सब्जेक्ट एण्ड पावर’ में फूको कहता है कि शक्ति-सम्बन्धों की व्याख्या करने पर प्रथम दृष्टया ऐसा लगता है कि प्रतिरोध शक्ति का विरोध तो करती है पर वास्तव में प्रतिरोध शक्ति के उस प्रभाव का होता है जो ज्ञान, योग्यता व अर्हता पर आधारित होता है. इस प्रकार, ‘प्रतिरोध’ द्वारा किसी शक्ति-सम्बन्ध का नहीं, वरन् ‘ज्ञान के उस आधिपत्य’ का विरोध होता है जो व्यक्ति पर एक पहचान थोपता है. ‘ज्ञान-आधिपत्य’ ही व्यवहार एवम् उससे विचलन के मानक तैयार करता है तथा ऐसे अनुशासनात्मक समाज को तैयार करने की असफल कोशिश करता है जिसमें मनुष्य उसके मानकों के अनुरूप आचरण करे. फूको के अनेक व्याख्याकारों ने ‘शक्ति’ एवम् ‘प्रतिरोध’ के द्वंद को न केवल फूको से सम्बन्द्ध किया है, वरन् उसकी पुष्टि भी की है. उन्होंने फूको की इस बात के लिये आलोचना भी की कि वह अपने विचारों में सातत्य बनाये न रह सका. यहां पर ऐसी तीन व्याख्याओं का उल्लेख किया जा रहा है.
प्रथम, हेबरमॉस व कुछ नारीवादी राजनीतिक दार्शनिक फूको की इस बात के लिए प्रशंसा करते हैं कि उसने ‘पहचान’ के प्राकृतिक होने को तिरस्कृत कर उसे शक्ति निर्मित बताया. पर वे उसकी इस बात के लिये आलोचना भी करते हैं कि उसने ‘शक्ति’ की सर्वव्यापकता को ‘पहचान’ के लिये अपरिहार्य बना दिया जिससे न तो शक्ति की आलोचना को स्थान मिला, न ही ‘शक्ति’ के विरोध को. ‘द्वितीय’, उत्तर-संरचनावादी विचारक जैसे जूडिथ बटलर मानती हैं कि फूको की शक्ति की अवधारणा में ही प्रतिरोध अन्तर्निहित है, पर उनका आरोप है कि फूको इस विचार में स्पष्ट नहीं. अन्तत: वह प्रतिरोध को ‘शक्ति के बाहर’ स्थापित करता प्रतीत होता है. शक्ति मनुष्यों पर ‘सामाजिक पहचान थोपती है’, पर इसके (शक्ति के) दो पक्ष हैं: अपने विधिक एवम् नियामक स्वरूप में यह ‘पहचान-थोपती’ है लेकिन उसका अतिवादी स्वरूप उस पहचान को नष्ट भी करता है. तृतीय, माइकल हार्ट व एंटोनियो नेग्री फूको पर यह आरोप नहीं लगाते कि उसने शक्ति व प्रतिरोध में सम्यक् विरोध दिखाने में कोई असफलता प्राप्त की, वरन् वे उसके विचारों को पुराना व अपूर्ण मानते हैं. यद्यपि अनुशासनात्मक समाज का स्थान नियामक समाज ने ले लिया है, फिर भी यह फूको के विचारों में पूरी तरह व्यक्त नहीं है क्योंकि वे मानते हैं कि फूको उत्तर-आधुनिक शक्ति-सम्बन्धों को पूरी तरह समझ ही नहीं पाया.
इन व्याख्याओं के विपरीत मैं फूको के शक्ति की अवधारणा की व्याख्या उसकी पुस्तक ‘द आर्किओलॉजी ऑफ नॉलेज’ में प्रतिपादित ‘विसरण’ के विचार के आधार पर करूंगा. यद्यपि ‘पहचान’ फूको के चिन्तन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, पर यह शक्ति-सम्बन्धों से उपजी ‘छाया’ के रूप में होती है, न कि किसी ‘तात्विक’ रूप में जिसे शक्ति व प्रतिरोध क्रमश: निर्मित व नष्ट करते हैं. मेरी परिकल्पना यह है कि शक्ति-सम्बन्ध ‘विसरित रूप’ में क्रियाशील होते हैं तथा शक्ति और कुछ नहीं वरन् ‘विसरण की शक्ति’ है. शक्ति एवम् प्रतिरोध शक्ति-सम्बन्धों का दृष्टि भ्रम है, यद्यपि इसी भ्रम को गलती से ‘वास्तविकता’ (जो शक्ति व प्रतिरोध से निर्मित व नष्ट होती है) मान लिया जाता है. इसी गलती के कारण फूको के विचारों की व्याख्या प्रभावित हो जाती है.
‘द आर्किओलॉजी ऑफ नॉलेज’ विसरण की संरचनाओं पर विचार करता है. ये संरचनाएं ‘व्यक्ति’ व ‘विषय’ को जन्म देती हैं तथा ‘ज्ञान के आधिपत्य’ का आधार तैयार करती हैं. पर विसरण है क्या ? विसरण में ‘विभिन्नताओं’ का कुछ ऐसा संश्लेषण होता है कि भिन्नताओं का अस्तित्व बना रहता है और कोई एकरूपता नहीं दिखाई देती. एक विसरित-संरचना में परस्पर विरोधी विषय व विचार एक साथ रह सकते हैं. पर इस संरचना से जो संवाद उपजेगा उसमें विरोधाभास होना आवश्यक नहीं. यहां दो बिन्दुओं पर संकेत जरूरी है; प्रथम, कानून व परिवार स्वयं ही लचीली व तरल अवधारणाएं हैं जिसमें अनेक विभिन्नताओं से सम्बन्द्ध ‘व्यक्ति’ व ‘विषय’ होते हैं; द्वितीय, विसरण की संरचना की एकता कोई स्थायित्व-मूलक नहीं, वरन् गत्यात्मक होती है. इस संरचना में विभिन्नताएं एक दूसरे से सम्बन्द्ध अवश्य होती हैं पर वे सम्बद्धताएं भी गतिमान होती हैं. इसलिये जब विसरण के विषयों में परिवर्तन हो जाता है तब भी विसरण की संरचना बनी रहती है. इस संरचना से उपजे वक्तव्यों की तारतम्यता व समरूपता से यह व्यक्त होता है.
‘विसरण की संरचना’ को किसी ‘वक्तव्य की संरचना’ द्वारा समझा जा सकता है. कोई वक्तव्य किसी वाक्य को अर्थ प्रदान करता है. वाक्य का तो व्याकरण होता है लेकिन वक्तव्य का कोई व्याकरण नहीं होता. एक वक्तव्य दूसरे वक्तव्य का सन्दर्भ देता है और किसी विशेष स्थिति में उनके भाव बदल जाते हैं. अत: किसी वक्तव्य को ठीक उसी रूप में दोहराया तो नहीं जा सकता लेकिन ऐसा कोई वक्तव्य नहीं जिसे उसके केन्द्रीय भाव के अनुरूप व्यक्त न किया जा सके. इस प्रकार, वक्तव्यों का संसार हमें ‘विसरण की संरचना’ का एक उदाहरण प्रदान करता है. विसरण की इसी दुर्लभ संरचना का अध्ययन ही ‘शक्ति’ व राजनीति का अध्ययन है.
‘द आर्किओलॉजी’ में शक्ति की अवधारणा का प्रतिपादन नहीं हुआ है, पर उसमें उस विचार के बीज हैं जो फूको की बाद की रचनाओं में व्यक्त हुआ है. लचीली व तरल संरचनाओं और पहचानों के नीचे एक और सूक्ष्म स्तर होता है जिसमें सम्मिलन, विलगाव व असम्बद्धताओं का ‘एक जाल’ सा होता है. ये वास्तविक होती हैं पर विसरित-संरचना को कोई ‘स्थायित्व’ प्रदान नहीं करतीं. न ही इनका कोई ऐतिहासिक व कालक्रमीय स्वरूप होता है. ठीक इसी प्रकार, समाज में शक्ति सम्बन्द्ध भी अतारतम्य व कालातीत होते हैं और कृत्रिम पहचान व जुड़ाव को जन्म देते हैं. वे किसी ऐसे स्थायी जुड़ाव को जन्म न देकर वास्तव में उन पहचानों को जन्म देते हैं जिनके क्षितिज पर उनके सीमांकन ओझल हो जाते हैं. इस प्रकार, ‘शक्ति-सम्बन्ध’ घटनाओं से परिपूर्ण एक ऐसा सूक्ष्म क्षेत्र निर्मित करते हैं जिसमें शक्ति का विश्लेषण ऐतिहासिक अथवा विश्लेषणात्मक न होकर वंशानुगत हो जाता है.
किसी भी विमर्श में इस बात की संभावना होती है कि मूल विषय, विषयी व स्वयं उसके ज्ञान का आधार ही बदल जाये. विमर्श पर बाह्य व आन्तरिक दोनों प्रकार के बन्धन होते हैं. विमर्श पर प्रतिबन्ध लगाकर अथवा उसे अस्वीकत कर बाह्य बन्धन प्रभावी होते हैं, वहीं विमर्श पर आन्तरिक बन्धन यह है कि वह सत्य को खोजे. यह खोज अन्य विमर्शों को प्रभावित कर, परिवर्तित कर, समाहित कर उन्हें एक आधार प्रदान करने का प्रयास करती है.
‘सत्य की खोज’ वास्तव में एक ‘विशेष प्रकार के सत्य’ की खोज होती है, जिसमें यह भाव होता है कि विश्व ‘एक विशेष प्रकार’ के सत्य को ही ‘सत्य’ के रूप में स्वीकार कर ले. यह खोज ऐतिहासिक रूप से मान्य सत्य व असत्य तथा विमर्श व शक्ति के अन्तर को प्रभावित करती है. यह आत्मभ्रम व अज्ञानता को स्वीकृत करती है. इस प्रकार, सत्य की खोज वास्तव में एक विशेष प्रकार के विमर्श व ज्ञान को सत्य के प्रमाणिक संस्करण के रूप में प्रस्तुत करती है. वर्तमान समय में ‘सत्य की इस खोज’ का एक स्वरूप ऐसा हो गया है जिसमें प्रमाणित सत्य से विचलन व विभिन्नता को भी परिभाषित किया जाता है और व्यक्ति के आचरण पर निगरानी रखी जाती है. इस प्रकार, व्यक्ति के ऊपर एक पहचान थोपकर उस ‘पहचान’ की शुद्धता की सुरक्षा की जाती है. स्पष्ट है कि सत्य की खोज व्यक्ति पर पहचान थोपने वाला एक ‘ज्ञान का आधिपत्य’ स्थापित करती है.
यह कहना पर्याप्त नहीं कि शक्ति किसी प्रतिरोध के विरुद्ध पहचान की सीमाएं तय करती है, या उन्हें नष्ट करती है. यह भी कहना पर्याप्त नहीं कि शक्ति प्रतिरोध के स्वरूप को तय कती है या उसके मानक तैयार करती है. ‘पहचान’ के सामान्य व विचलनकारी स्वरूप का अस्थिर व परिवर्तनशील स्वरूप इसलिये नहीं होता कि शक्ति व प्रतिरोध जैसे आमने-सामने हों. शक्ति के गत्यात्मक स्वरूप का ऐसा चित्रण बड़ा ही सतही होगा. यदि विमर्श व शक्ति एक दूसरे से पृथक नहीं हैं और शक्ति ही विमर्श को आकार देती है तब आभास होता है कि शक्ति के कार्य की शैली क्या है.
विसरित-शक्ति अनेक विविधताओं और भिन्नताओं को सम्बद्ध करती है. शक्ति विभिन्न सम्बन्धों का एक ऐसा जाल या नेटवर्क बना लेती है जिसकी अनिरन्तरता को सामान्यत: मापा नहीं जा सकता. पर यदि शक्ति की कार्य शैली ऐसी ही है तो वह ‘सत्य की खोज’ की अवधारणा से मेल नहीं खाती.
फूको के अनुसार शक्ति का ध्येय व्यक्ति को सामान्य पहचान देना व अनुशासित करना कभी नहीं रहा. आधुनिक समाज में अपराधियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वे अनेक ऐसी संस्थाओं से गुज़र चुके हैं जो शक्ति का प्रयोग करती हैं शक्ति के बारे में यह कभी नहीं कहा जा सकता कि वह व्यक्ति को सामान्य से विचलित कर ‘अपराधी’ बनाती है. अत: हमें सामान्यीकृत व अनुशासनात्मक शक्ति के उस उद्देश्य को समझना चाहिये जो व्यक्ति में परिवर्तन लाती है, जो परिवर्तन आधुनिक उदारवादी व पूंजीवादी समाज के अनुरूप है तथा जिसके द्वारा हम सामाजिक व आर्थिक दक्षता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं.
ऐसे सामान्यीकृत व अनुशासनात्मक शक्ति का अभ्युदय समाज में संप्रभुशक्ति की केन्द्रीकृत अवधारणा के अवसान, पूंजीवाद व मुक्त-बाजार के अभ्युदय और सरकारों के संविदावादी स्वरूप के कारण हुआ. इससे बदले सन्दर्भों में व्यक्ति की पहचान बदलने की भी आवश्यकता पड़ी. ऐसा नहीं कि सभी व्यक्तियों को ‘एक जैसा’ बनाया जाए. पर उन्हें पहचान के उन मानकों के प्रति सचेष्ट करने की आवश्यकता हुई जो बदले परिवेश में जन्मी. ये मानक पर्यवेक्षण, प्रयोग, वर्गीकरण एवम् स्वीकारोक्ति के तरीकों का प्रयोग करते हैं तथा पुरस्कार व दण्ड के माध्यम से कार्य करते हैं. यद्यपि शक्ति का यह स्वरूप शासक व शासित के समीकरण पर आधारित होता है, यह समाज के सूक्ष्मतम् (निम्नतम्) स्तर अर्थात् व्यक्ति को लक्ष्य बनाता है और इस प्रकार, यह संप्रभु शक्ति की अवधारणा से पूर्णत: विलग है. शक्ति का सूक्ष्म स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता, वृहद् स्वरूप दिखाई दे जाता है. वे दोनों एक दूसरे को सशक्त भी करते हैं और नुकसान भी पहुंचा सकते हैं (जैसे पुलिस के एक सिपाही का व्यवहार व आचरण पूरे पुलिस महकमे को गौरवान्वित भी कर सकता है और लज्जित भी). ‘शक्ति का सूक्ष्म स्वरूप’ वास्तव में ‘शक्ति के विसरित स्वरूप’ को दर्शाता है क्योंकि अपने उस रूप में शक्ति ‘विविध-व्यक्तियों’ की सम्बद्धता भी दर्शाती है और इसीलिये, इन सम्बद्धताओं के अन्तरालों में नई विरोधी प्रवृत्तियां प्रवेश कर जाती हैं और परिवर्तन की संभावना मुखर हो जाती है. प्रतिरोध कभी-कभी ‘शक्ति का प्रत्यक्ष विरोध‘ जैसा हो सकता है, पर शक्ति की संरचना ऐसी विसरित है जिसमें विविधताओं की सम्बद्धताएं एवम् उनके अन्दर के अन्तराल में प्रतिरोध विविध रूपों में व्यक्त हो सकता है. इसलिये, अनुशासनात्मक शक्ति न तो सामान्य, न अपराधी नागरिक बना पाती हैं वरन् विचित्र-नागरिकों को जन्म देती है जो आधुनिक सरकारों के अनुशासनात्मक संरचनाओं को सहारा देते हैं.
ऐसी सामान्यीकृत व अनुशासनात्मक शक्ति की संस्थाएं ‘सत्य की खोज’ में अनेक भिन्नताओं व विरोधी प्रवृत्तियों से ग्रस्त होती हैं और इसीलिये बनती-बिगड़ती रहती हैं. फिर भी उनमें एक सातत्य होता है और वह सातत्य ‘इच्छा व सत्य’ की विविधताओं के जुड़ाव में व्यक्त होता है. इसमें अपने बारे में अपनी इच्छा को ही सत्य के रूप में परोसने का भाव होता है. इससे शक्ति व सत्य को भिन्न-भिन्न कालों की भिन्न-भिन्न असम्बद्ध अवधारणाओं के रूप में नहीं लिया जा सकता. इनमें एक प्रवाहपूर्ण सम्बद्धता होती है. पर इस सम्बद्धता के नीचे एक विशेष अर्थ होता है जो पूरे विमर्श में व्यक्त होता है. यह अर्थ ‘विरोधाभासी’ हो सकता है पर ‘विसरण’ के सकारात्मक पक्ष को व्यक्त करता है. इसका कारण यह है कि ‘सत्य की खोज’ में लीन विमर्श ‘अन्यता’ को विभिन्नताओं व विविधताओं के नेटवर्क या जाल से अलग नहीं मानता. यह ‘अन्यता’ विसरित शक्ति-संरचना से उपजी पहचानों (परस्पर विरोधी या विभिन्न) को एक समस्या के रूप में प्रस्तुत कर हमें अपने व्यवहार व स्वयं को परिवर्तित करने में मदद देती है.
फूको के चिन्तन में व्यक्ति के व्यवहार को परिवर्तित करने में ‘अन्यता’ की उपेक्षा नहीं की जा सकती. यह व्यक्ति के अन्दर प्रवेश कर उसे विभाजित करने, उसके अन्दर की एकरूपता को तोड़ने और उसे अपनी सीमाओं से बाहर निकालने का काम करती है. इस प्रकार, व्यक्ति का अन्य व्यक्तियों से सम्बन्धों की स्वतंत्रता का क्षेत्र शक्ति के नियंत्रण से मुक्त नहीं होता. व्यक्तियों के अन्तर्सम्बन्ध वास्तव में एक ऐसे सूक्ष्म राजनीतिक परिवेश में स्थिर होते हैं जिसमें स्वयं उनका अस्तित्व शक्ति-सम्बन्धों के आधार पर होता है, जिनके साथ व्यक्ति रहता है और जो व्यक्ति के अन्दर रहती हैं. इसीलिए, प्रत्येक व्यक्ति एक ऐसी ‘सूक्ष्म राजनीतिक सत्ता’ है जो आत्मानुशासन व प्रशिक्षण के साथ-साथ आत्म-संरचना, आत्म-विशिष्टता व आत्म-प्रयोग में लीन होता है.
नैतिक-अनुशास्तियां ऐसे व्यक्ति की परिकल्पना करती हैं जो स्वयं को उनके अनुरूप बना सके. अत: स्वयं वह व्यक्ति ही ‘नैतिकता’ नहीं हो सकता; वह तो विसरण की ‘इकाई’ मात्र हो सकता है. व्यक्ति स्वयं अन्तर्विरोधों से, द्वन्दों से युक्त होता है तथा बाह्य पर्यावरण की विविधताओं से जुड़ा होता है. पर व्यक्ति का ऐसा ‘गैर-स्वरूप’ चरित्र व्यर्थ हो जायेगा यदि वह स्वयं को ‘एक स्थिर पहचान’ देकर या ‘नैतिकता की अनुशास्ति’ को समर्पित कर संतुष्ट हो जायेगा. प्रत्येक नैतिक-व्यवस्था स्वयं अन्तर्विरोधों से भरी होती है इसलिये इस बात की संभावना रहती है कि व्यक्ति स्वयं से, अन्यों से व समाज से अपने सम्बन्धों को पुनर्परिभाषित कर सके.
इस प्रकार, फूको की बाद की रचनाओं में उन नैतिक संकल्पनाओं की पुनरावृत्ति होती है जो उसने शुरू में व्यक्त की- जैसे व्यक्ति को अपने ‘स्व के फासीवाद’ से संघर्ष करना तथा अपने विरोधी को अपना शत्रु न मानना. इसमें भी अपनी पहचान को निर्मित करने वाली परस्पर-विरोधी प्रवृत्तियों को लांघने तथा एक ‘समरूप-स्व’ की अवधारणा से आगे निकलने का भाव है. सत्ता और ‘स्व’ की विखण्डित प्रकृति के कारण नैतिक-विमर्श की संभावना बराबर बनी रहती है. अत: आश्चर्य नहीं कि फूको के समर्थक व आलोचक दोनों ही ‘स्व’ एवम् ‘स्वजन्य-राजनीति’ के विचार को पसन्द नहीं करते क्योंकि ये विचार ‘पहचान’ को आधार बना कर जन-सहयोग व जन-समर्थन जुटाया गया हो. वे मानते हैं कि ऐसे ‘जन-सहयोग’ में ‘पहचान’ का स्वरूप बहुल होता है जिसमें किसी ‘एकल पहचान’ को निर्दिष्ट करना संभव नहीं. ‘एकल पहचान’ की अवधारणा शक्ति के विसरित स्वरूप की अवधारणा के प्रतिकूल है; वह एक प्रतिबिम्ब मात्र को ही वास्तविकता मानने की भूल कर बैठती है. पर ऐसी नकारात्मक प्रवृत्तियों के बिना सत्ता, विमर्श एवम् अन्तर्सम्बन्ध से परे किसी विचार को ठीक ढंग से नहीं समझा जा सकता.
फूको मानता है कि उसकी ‘नैतिकता’ की अवधारणा ‘राजनीति’ को प्रभावित करती है पर वह सुझाव देता है कि उस ढंग से राजनीति करना आवश्यक नहीं. यदि हम विचार त्याग दें कि राजनीति करने के लिये हमें पहले एक ‘सामूहिक पहचान’ निर्मित करने की जरूरत है तब नैतिक विमर्श पर आधारित स्वजन्य-राजनीति की अवधाऱणा बनती है जिसमें ‘पहचान’ व ‘सत्य की खोज’ के तर्क में हमें एक सकारात्मकता के दर्शन होते हैं. फूको शक्ति, विमर्श व स्व की अवधारणाओं में एक नूतन सकारात्मकता का समावेश करता है जो नकारात्मकता व प्रतिरोध से दूर होने की प्रक्रिया में भी अपने अन्तर्सम्बन्धों को बनाए रखती है. ऐसी नकारात्मकता से दूर होते हुये जब हम नवीन समूहों की ओर आकृष्ट होते हैं तब जहां एक ओर हमारी वैयक्तिकता का नाश होता है, वहीं दूसरी ओर हम राजनीति को ‘पहचान’ पर आधारित करने की आवश्यकता को भी नष्ट कर रहे होते हैं. जहां फूको अपनी रचनाओं में ‘पहचान’ को महत्व देता है वहीं उसका संदेश यह है कि हमें ‘पहचान’ को ज्यादा महत्व नहीं देना चाहिये.
पुनर्लेखन – चन्द्रशेखर, पूर्व सदस्य, शोधार्थी शोध मण्डल, कानपुर
प्रस्तुत लेख ‘यूरोपियन जर्नल ऑफ पोलिटिकल थ्योरी’, वाल्यूम 3 अंक 4, 2004 पृष्ठ 411-432 से साभार उद्धृत. मूल लेख ‘फूको एण्ड पावर रीविज़िटेड’ शीर्षक से प्रकाशित.
83 responses to “फूको : शक्ति की अवधारणा”
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